ये बेचारा मन….
“मन” एक जटिल और व्यापक अवधारणा है, जो व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और बौद्धिक पहलुओं से जुड़ी होती है। इसे हिंदी में व्यक्ति की चेतना, विचार प्रक्रिया, और भावनाओं का केंद्र माना जाता है।
मन की विशेषताएँ:
1. विचारों का स्रोत: मन वह स्थान है जहाँ विचार उत्पन्न होते हैं। हम जो भी सोचते, कल्पना करते, या निर्णय लेते हैं, वह मन की गतिविधि का परिणाम होता है।
2. भावनाओं का केंद्र: हमारी भावनाएँ—जैसे प्यार, नफरत, खुशी, दुख, और क्रोध—मन से ही संचालित होती हैं। मन व्यक्ति की मानसिक स्थिति को दर्शाता है।
3. स्मृतियाँ और अनुभव: मन हमारे पिछले अनुभवों और यादों को संग्रहित करता है। यह हमें पुरानी स्मृतियों और अनुभवों के आधार पर भविष्य के निर्णय लेने में मदद करता है।
4. चेतना और अवचेतन: मन को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है—चेतन (conscious) और अवचेतन (subconscious)। चेतन मन वह है जो जागरूक स्थिति में काम करता है, जबकि अवचेतन मन गहरे स्तर पर काम करता है और हमारे व्यवहार और विचारों को प्रभावित करता है।
5. इच्छाएँ और वासनाएँ: मन हमारी इच्छाओं और आकांक्षाओं का भी केंद्र है। यह हमें कुछ प्राप्त करने या किसी लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
मन की शक्ति:
भारतीय दर्शन में मन को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। यह कहा जाता है कि “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत,” जिसका अर्थ है कि मन की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि यह व्यक्ति की सफलता और असफलता को निर्धारित कर सकती है।
योग और ध्यान में, मन को नियंत्रित करने और उसे शांत करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है, क्योंकि एक शांत और संतुलित मन से जीवन में स्थिरता और खुशी मिलती है। हे साधकों ! मन को क्यों दोष देते हो कि मन नही लगता, मन नहीं लगता । मन तो वो पक्षी है जो अनन्त आकाश में उड़ता रहता है …किन्तु कब तक , जब तक वो बाज़ पक्षी के चंगुल में न आजाये । एक बार बाज़ के चंगुल में आगया तो वो उड़ ही नहीं सकता ।
ऐसे ही साधकों ! मन का कोई दोष नहीं है ….मन तो उड़ेगा ही …..वो किसी के वश में आने वाला नहीं है …बस एक ही बाज़ ….यानि प्रेम ….प्रेम बाज़ पक्षी है …ये प्रेम जब तुम्हारे हृदय रूपी आकाश में आजाएगा ना ….तो फिर बेचारा मन कुछ नहीं कर पाएगा ….ये पक्की बात है ….फिर क्यों भटक रहे हो इधर-उधर ….प्रेम के पाश में बंध जाओ ना ! फिर देखना ….तुम्हारी ये शिकायत ही खत्म हो जाएगी कि मन नहीं लगता ….फिर तो तुम ये कहते फिरोगे कि कोई उपाय बताओ …मन को प्रेम के चंगुल से कैसे निकालूँ ? फिर तुम गंडा-ताबीज़ लगाते फिरोगे कि …यार इस प्रेम को मेरे जीवन से हटाओ ….ये मन अब ‘वहीं’ लगता है ….क्या करूँ मैं ? जी , अब कुछ नहीं कर सकते आप ….अब ये मन वहीं जाएगा जहाँ प्रियतम हैं … क्योंकि प्रेम ने तुम्हारे परम शक्तिशाली मन की गर्दन दबोच ली है ….वो फड़फड़ा रहा है ।
मन पंछी तब लौं उड़ै, विषय वासना माहिं ।
प्रेम बाज़ की झपट में , जब लौं आवत नाहिं ।।
बिल्वमंगल जी कह रहे हैं……
अहिमकर-कर-निकर-मृदु-मुदित-लक्ष्मी-
सरस-तर-सरसिरुह-सदृश-दृशि देवे ।
ब्रज-युवति-रति कलह विजय निज लीला –
मन मुदित वदन शशि मधुरिमणि लीये ।। (श्रीकृष्ण कर्णामृत – 51 ।
बिल्वमंगल उस ‘रस प्रदेश’ में घूम रहे हैं ….वो घूम-घूम कर देख रहे हैं ….उनका अन्वेषण चल रहा है …..वो खोज रहे हैं अपने प्राण धन को । उनकी ये तड़फ अपने आप बढ़ती जा रही है । ज्ञान मार्ग में कितना कुछ करना पड़ता है …योग में नित्य अभ्यास की आवश्यकता है …किन्तु ये प्रेम मार्ग तो विलक्षण है ।
बिना अभ्यास के तुम्हारा मन कैसे लग गया अपने आराध्य में ?
कोई पूछ रहा है बिल्वमंगल से कि – बिना अभ्यास के तुम्हारा मन कैसे लग गया अपने आराध्य में ? बिल्वमंगल इस बात पर हंसते हैं ….वो कहते हैं …अभ्यास की ज़रूरत प्रेम में नहीं है ….अभ्यास तो ज्ञान और योग में अनिवार्य है ….किन्तु प्रेम में क्या अभ्यास ? बिल्वमंगल कहते हैं ….अपने प्रियतम का स्मरण क्या अभ्यास के द्वारा होगा ? प्रिय के स्मरण में अभ्यास की आवश्यकता कहाँ है ? वहाँ तो ये अभ्यास चाहिए कि अब नहीं , अब बहुत हो गया …..कितना रोयें ..कितना कितना तड़फें ? अब और नहीं …अब तो कोई ऐसा उपाय हो की वो प्राण प्रिय जो दिल में बस गया है …वो निकल जाये । लेकिन अब निकलेगा नहीं । बिल्वमंगल कहते हैं …प्रेमी तो अभ्यास करता है कि उसे मैं दिल से निकालूँ ….लेकिन वह जो गढ़ गया है दिल में काटें की तरह ….वो नहीं निकलता । प्रियतम बस गया है मन में …..मन अब धीरे धीरे मर रहा है …..वो मरेगा …उसकी जगह प्रियतम ले लेगा । अब मन के रूप में प्रियतम खड़ा है । ये चमत्कार प्रेम मार्ग में ही है ।
बिल्वमंगल कदम्ब वृक्ष को पकड़ कर कहते हैं ….आह ! मन कहीं और क्यों जाये …जब श्याम सुन्दर सामने खड़े हों तो ….सामने ही नहीं …चारों ओर बस वही-वही हैं ।
अब उनके वो नयन । क्या सुन्दर कमल नयन हैं ! ओह ! ऐसे कमल नयन , जो सूर्य की रश्मियों से खिले हैं ….फिर बिल्वमंगल कहते हैं …. नहीं-नहीं , सूर्य भी दोपहरी का नहीं …उदित होते हुए सूर्य की किरणें …..ये शीतल होती हैं …इन्हीं शीतल रवि रश्मियों ने इसके ‘नेत्र कमल’ को खिलाया है ….कितने सरस और प्रेमपूर्ण हैं …..बिल्वमंगल आनंदित हो उठते हैं ….कुछ देर यहाँ चुप हो जाते हैं ….क्यों कि इनका मन श्रीकृष्ण के नेत्र कमल में खो गया है….जब इन्हें स्वभान होता है …तब ये फिर बोलते हैं …..मन उन नेत्र कमल में लग गए हैं ….लेकिन तभी ध्यान जाता है …मुख कमल पर ….उसकी शोभा तो और भी निराली है ….वो ‘मुख अरविंद’ तो विजयश्री पाए हुए की तरह ही फूला नहीं समा रहा है ….क्यों इतना प्रसन्न है ये मुखकमल ? तो बिल्वमंगल कहते हैं …ब्रज नारियों के साथ इनका रतिरण हुआ हैं …उस युद्ध संग्राम में इनको विजय मिली है …इसलिए ये अतिप्रसन्न हैं ।
बिल्वमंगल कहते हैं …”उस दिव्य नेत्र कमल में , उस दिव्य मुख कमल में – मेरा मन निमग्न हो रहा है” ….इसमें अभ्यास की ज़रूरत क्या है ? अभ्यास तो वहाँ चाहिए जहाँ प्रेम न हो …यहाँ तो सौदा ही प्रेम का है ….यहाँ तो बस उस प्रियतम की छवि निहारने की आवश्यकता है । एक बार वो छवि मन में बस गयी तो फिर मन बंध जाएगा …मन पंगु हो जाएगा …फिर न कुछ सुनाई देगा न उसके सिवा कुछ दिखाई देगा …फिर किसी विषय वासना में ये ताकत नहीं है कि तुम्हारे मन को डिगा सके ।
मन वासनाओं के कारण बिगड़ता है ?
बड़े-बड़े सिद्धों का मन वासनाओं ने बिगाड़ दिया ..ये देखा गया है । बड़े-बड़े योगींद्र -मुनिंद्र का मन भटकते हुए देखा गया है …लेकिन किसी प्रेमी का मन भटका हो ये असम्भव है और भटक रहा है तो फिर तुम प्रेमी ही नहीं हो ..प्रेमी का मन तो उसके प्रियतम ने पंगु जो बना दिया है ।
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Author: Suryodaya Samachar
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