भगवान् को प्राप्त करनेके लिए आवश्यक है –
उत्कट चाह
भगवान् को प्राप्त करना हो तो भगवान् को प्राप्त करने की हृदयमें चाह पैदा करें। वह चाह आग बन जाय। यह आलंकारिक भाषा नहीं है, चीज ही ऐसी है। भगवान् की चाह, वह आग बन जाती है जो अन्य समस्त चाहों-इच्छाओं को जला देती है। यदि जलाती नहीं है तो भगवान् की चाह नहीं है। यह कसौटी है। जगत् से नाता तोड़ना नहीं पड़ता, स्वतः टूट जाता है। उनकी चाह अन्य किसी चाह को बर्दाश्त नहीं करती। यह दूसरी किसी चाह को भगा देती है। तुलसीदासजी ने कहा है- माया खलु नर्त
अर्थात् भक्तिके सामने माया रह नहीं सकती है। भक्ति पटरानी है और माया नर्तकी है। बेचारी माया तभी तक मोहती है, नचाती है जब तक है भक्तिदेवी नहीं आती हैं। भगवान् की साक्षात् पटरानी भक्तिदेवी आ गयीं तब माया चली जाती है।
अगर जगत् की चाह मन में है तो भगवान् की चाह पैदा होगी ही नहीं। यह कसौटी है। भगवान् मिलें कैसे? हमने भजन चाहा ही कब ? हमने भजन किया कब ? हमने तो भोगों का भजन किया। हमने भगवान् की चाह के साथ-साथ भोगों की चाह रखी। यह व्यभिचारी चाह है। यह तो भगवान् के नाम पर किसी सुख की चाह है, किसी इन्द्रियविलास की चाह है, किसी भोग की चाह है, किसी कामना की चाह है, किसी स्वर्ग की चाह है, किसी सद्गति की चाह है। तुलसीदासजी कहते हैं –
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद, बढ़े अनुदिन अधिकाई ॥
अर्थात् न सद्गति चाहिये, न सम्पत्ति चाहिये न ऋद्धि- सिद्धि और न ही विपुल बड़ाई चाहिये। हमें तो चाहिये दिनों दिन बढ़नेवाला हेतुरहित भगवान् राघवेन्द्र के चरण-कमलों में अनुराग। यह चाह जब रहेगी तब अन्य सभी चाह मिट जायगी।
अतएव भगवान् की प्राप्ति में, भगवान् के प्रेम की प्राप्ति में, भगवान् के भजन की प्राप्ति में जो कुछ विलम्ब है, वह हमारी चाह का विलम्ब है। हमारे मन में जिस दिन, जिस क्षण भगवान् को प्राप्त करने की उत्कट चाह पैदा हो जायगी, उस समय हम भगवान् के बिना नहीं रह सकेंगे और भगवान् भी उस समय हमारे बिना नहीं रह सकेंगे।
मैं, मैं हूं ! भीतर के मैं का मिटना क्यों जरुरी है?…
🙏🙏🙏
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