*भक्ति और आसक्ति*
विचार करें, भगवान् राम ने विभीषण को गले से लगाया गया, सूर्पनखा को दृष्टि तक नहीं मिली। यहाँ तक कि जब सुग्रीव ने पूछा कि भगवान् आपने विभीषण को लंकापति बना दिया, यदि कल रावण भी शरण में आ गया तो उसे क्या देंगे? राम जी ने कहा कि मैं भरत को वन में बुला लूंगा, रावण को अयोध्या दे दूंगा।
जब पूछा गया कि तब सूर्पनखा ने ही ऐसा कौन सा अपराध कर दिया? आप स्वीकार न करते, कम से कम एक बार दृष्टि तो देते। और उधर कृष्णलीला में, भगवान् ने कुब्जा को स्वीकार कर लिया, जबकि पूतना के आने पर आँखों को बंद कर लिया था।
देखें, भगवान् के दो नियम हैं –
एक तो यह कि भगवान् को कपट स्वीकार नहीं। विभीषण और कुब्जा ने कपटरूप नहीं बनाया, जैसे थे वैसे ही आ गए। जबकि सूर्पनखा और पूतना ने कपटवेष बनाया।
दूसरे, भगवान् तन नहीं देखते, मन देखते हैं। मन की दो ही धाराएँ हैं –
भक्ति या आसक्ति और इस देह रूपी पंचवटी में दो में से एक ही धारा प्रवाहित होती है। सीताजी भक्ति हैं, सूर्पनखा आसक्ति है। भगवान् की दृष्टि भक्ति पर से कभी हटती नहीं है और आसक्ति पर कभी पड़ती नहीं है।
अब आप झांककर देखें कि आपके अन्तःकरण में कौन है?
यदि वहाँ भक्ति है, तो आप धन्य हैं, आपके भीतर सीताजी बैठी हैं, आपको पुकारना भी नहीं पड़ेगा, भगवान् की दृष्टि आप पर टिकी है, टिकी रहेगी। लेकिन यदि वहाँ आसक्ति का डेरा है, तो आपके भीतर सूर्पनखा नाच रही है, आप लाख चिल्लाओ, भगवान् चाहें तो भी आप पर दृष्टि नहीं डाल सकते।
भगवान् की दृष्टि में तन का सौंदर्य, सौंदर्य नहीं, मन का सौंदर्य ही सौंदर्य है। इसीलिए भगवान् के लिए जीर्णशीर्ण बूढ़ी शबरी सुंदर है, सूर्पनखा नहीं। जहाँ भक्ति है, वहीं सौंदर्य है, तन का सौंदर्य तो दो कौड़ी का है। चमड़ी की सुंदरता पर जो रीझ जाए, वह तो मूर्ख है, अंधा है। मन सुंदर हो, तभी कुछ बात है
🙏🙏