वास्तविक सेवा
केवल दूसरेके लिये कुछ वस्तुओंको देना और शरीरसे उनकी सेवा कर देना ही सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी न चाहकर दूसरेका हित कैसे हो, उनको सुख कैसे मिले – इस भावसे कर्म करना ही सेवा है। अपनेको सेवक कहलानेका भाव भी मनमें नहीं रहना चाहिये। सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपनेसे अभिन्न अर्थात् अपने शरीरकी तरह ही मानता है और बदलेमें उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता।
कैसे की जाए सेवा ?
जैसे मनुष्य बिना किसीके उपदेश दिये अपने शरीरकी सेवा स्वत: ही बड़ी सावधानीसे करता है और सेवा करनेका अभिमान भी नहीं करता, ऐसे ही सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेसे भक्तकी स्वत: सबके हितमें रति रहती है। उनके द्वारा प्राणिमात्रका कल्याण होता है; परन्तु उनके मनमें लेशमात्र भी ऐसा भाव नहीं होता कि हम किसीका कल्याण कर रहे हैं। उनमें अहंताका सर्वथा अभाव हो जाता है, अत: ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुषोंको आदर्श मानकर साधकको चाहिये कि सर्वत्र आत्मबुद्धि करके संसारके किसी भी प्राणीको किंचिन्मात्र भी दु:ख न पहुँचाकर उनके हितमें सदा तत्परतासे स्वाभाविक ही रत रहे।सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करने के लिये धनादि पदार्थों की चाह तो कामना है ही, सेवा करने की चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवा की चाह होने से ही धनादि पदार्थों की कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिए, पर सेवा की कामना नहीं करनी चाहिये।
दूसरे को सुख पहुँचाकर सुखी होना, ‘मेरे द्वारा लोगों को सुख मिलता है’- ऐसा भाव रखना, सेवा के बदले में किंचित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलने पर राजी होना वास्तव में भोग है, सेवा नहीं कारण कि ऐसा करने से सेवा सुख-भोग में परिणत हो जाती है अर्थात सेवा अपने सुख के लिये हो जाती है। अगर सेवा करने में थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थों में महत्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमश: ममता और कामना की उत्पत्ति होती है।
‘मैं किसी को कुछ देता हूं’-
ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझ में नहीं आती तथा कोई उसे आसानी से समझा भी नहीं सकता कि सेवा में लगने वाले पदार्थ उसी के हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसी की वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदले में कुछ चाहने का हमें अधिकार ही क्या है? उसी की धरोहर उसी को देने में एहसान कैसा ? अपने हाथों से अपना मुख धोने पर बदले में क्या हम कुछ चाहते हैं?
यह विचार सेवा के सच्चे स्वरूप और उसकी शुद्धता को स्पष्ट करता है। सच्ची सेवा वह है जिसमें कोई व्यक्तिगत आकांक्षा, इच्छा या प्रतिफल की अपेक्षा न हो। यदि सेवा करने वाला व्यक्ति अपने कृत्य के बदले में प्रशंसा, सम्मान या सुख की कामना करता है, तो वह सेवा वास्तविक सेवा नहीं रहती, बल्कि एक प्रकार से भोग बन जाती है।
सेवा का उद्देश्य निःस्वार्थ होना चाहिए, जिसमें केवल दूसरों के लाभ के लिए कर्म किया जाता है, न कि अपने सुख या संतोष के लिए। जब हम यह मान लेते हैं कि जो कुछ हम किसी को दे रहे हैं, वह पहले से ही उसका है, तो हमें बदले में कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं होती। सेवा में यही भावना आवश्यक है कि हम केवल माध्यम हैं, वास्तविक मालिक तो वही है जिसे सेवा की जा रही है।
सच्ची सेवा बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी मान-प्रतिष्ठा की इच्छा के, निःस्वार्थ भाव से की जाती है। यही सेवा का सर्वोच्च रूप है।
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Author: Suryodaya Samachar
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