तन और मन: एक अंतहीन द्वंद्व सब कुछ दिखता है बाहर — शरीर, कपड़े, मकान, गाड़ी। पर असली लड़ाई भीतर चल रही होती है — मन के साथ।
कहते हैं, इंसान शरीर से थकता है, लेकिन सच तो ये है कि वह मन से हारता है।
तन तो बस ज़रूरतें रखता है — दो रोटियाँ, एक चादर, छांव की जगह।
मन सपनों की गठरी उठाए फिरता है — एक बंगला हो, नई गाड़ी हो, और हर किसी की तारीफ भी हो।
तन कहता है — “मुझे बस आराम दे दो, मैं चल पड़ूंगा,”
मन कहता है — “आराम नहीं, आराम की तस्वीर चाहिए; और वो भी दूसरों से बेहतर!”
तन को एक प्याला पानी चाहिए, मन को चाहिए, वो पानी ‘बोतल’ में हो — ब्रांडेड हो, महंगे होटल से लाया गया हो।
तन को रोटी मिल जाए तो शांति,
मन को रोटी पर लगी मक्खन की मोटाई से भी जलन।
क्यों दौड़ता है मन?
मन कभी अब में नहीं होता — या तो अतीत की गलियों में भटक रहा होता है या भविष्य की चिंता में उलझा होता है।
तन वर्तमान में जीता है, पर मन भविष्य की हवस में जलता है।
मन कहता है — “सफलता चाहिए,”
तन कहता है — “संतुलन चाहिए।”
मन कहता है — “लोग क्या कहेंगे?”
तन कहता है — “तू तो बस सुकून दे दे।”
सच्चाई यही है…
जब मृत्यु दरवाज़े पर दस्तक देती है, तन चुपचाप झुक जाता है।
न कोई बहाना, न कोई विरोध।
लेकिन मन तब भी लड़ता है — दवा, तंत्र, यज्ञ, सब करवाता है, बस मौत टल जाए।
असल में, मृत्यु से डर तन को नहीं लगता — डरता है मन, क्योंकि उसने कभी चैन से जीना सीखा ही नहीं।
तो सुलझाना किसे है?
तन को सहेजने के सौ तरीके हैं — योग, प्राणायाम, दवाएं।
पर मन को सहेजना एक ही रास्ते से होता है — साक्षीभाव, खुद को देखना।
मन को रोकना नहीं है,
बस देखना है — वह क्यों भाग रहा है, कहाँ भाग रहा है।
देखते ही वह शान्त हो जाता है,
क्योंकि मन का अस्तित्व केवल भ्रम में है।
अंत में…
जब हम परमात्मा को याद करते हैं, तो मन को सा वेथ जोड़ते हैं —
पर नीयत शरीर की सुविधा होती है, आत्मा की शांति नहीं।
मनमोहन से प्रेम हो, तो मन को जीतना होगा।
वरना मन, हर बार तन को गुलाम बना देगा।

Author: Suryodaya Samachar
खबर से पहले आप तक



