*भक्त की इच्छामयता ही भगवान् का स्वरूप है*
कुरुक्षेत्र की युद्धस्थली में युद्ध-विश्राम कालांतर्गत महाराज युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के डेरे में गए। वहाँ पहुँचने पर महाराज युधिष्ठिर ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण गद्गद् कण्ठ एवं अश्रुपूरित नयन होकर किसी के ध्यान में मग्न हैं; स्वभावतः महाराज युधिष्ठिर आश्चर्यचकित हुए। ब्रह्मादि देव-शिरोमणि एवं अमलात्मा परमहंस योगीन्द्र मुनीन्द्र भी जिसका ध्यान करते हैं, वे परात्पर परब्रह्म स्वयं किसके ध्यान में मग्न हैं ?
युधिष्ठिर की आहट पाकर भगवान् श्रीकृष्ण ने आँखे खोली और युधिष्ठिर से बैठने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपना संदेह निवेदन करते हुए स्पष्टीकरण हेतु प्रार्थना की।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- कुरुक्षेत्र की युद्धस्थली में शर-शैय्या पर पड़े हुए भीष्म मेरे ध्यान में तल्लीन हैं, अतः मैं भी अपने भक्त का ध्यान कर रहा हूँ।
*मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि*
(श्रीमद्भागवत महापुराण 9.4.68)
मेरा भक्त मुझसे भिन्न कुछ नहीं जानता और मैं तो भक्त के अतिरिक्त लेशमात्र भी कुछ नहीं जानता। भक्त कहता है – *ना मैं देखूं, और को ना तोहे देखने दूं*
*स्वेच्छामयस्य स्वीयानां यथा इच्छा भवति तथैव भगवान् भवति* अर्थात् भक्त की इच्छामयता ही भगवान् का स्वरूप है।
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