भगवान् के समान हमारा कोई हितैषी नहीं है
सरलता भी परमात्मा है । अपने भीतर भी वैसे के वैसे परमात्मा हैं जैसे प्रहलाद जी के लिए खंभे से प्रकट हुए। भगवान् में किंचित् मात्र भी कमी नहीं है, पूरे के पूरे प्रकट हुए । ऐसे ही सब मनुष्यों में भगवान् पूरे के पूरे हैं । हमारी दृष्टि नाशवान् की तरफ है । भोगों को अच्छा समझते हैं | यह दृष्टि ही बार-बार जन्म-मरण देने वाली है, इससे धीरे-धीरे उपराम हो जाए।
अनुकूलता तथा प्रतिकूलता दोनों से ही भगवान् के साथ संबंध जुड़ता है। जैसे भगवान् राम वनवास में गए तो जिन्होंने वैर किया, उनका भी कल्याण हुआ और जिन्होंने प्रेम किया उनका भी कल्याण हुआ । हमें संसार से केवल उपराम होना है। इसे न अनुकूल समझें, न प्रतिकूल समझें क्योंकि परमात्मा तो सब जगह पूरे के पूरे ही हैं । प्रहलाद जी ने वरदान मांगा कि मेरे पिताजी का कल्याण हो जाए । भगवान् कहते हैं कि अरे ! तू क्या मांग रहा है, तेरी तो 21 पीढ़ियों का कल्याण हो गया ।
भगवान् की ओर से *सब मम प्रिय सब मम उपजाए* भगवान् के समान हमारा कोई हितैषी नहीं है…
उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ।।
लेकिन यह बात न तो हम स्वयं सोचते हैं और न ही किसी के कहने से मानते हैं । मानते भी हैं तो जितना मानना चाहिए, उतना नहीं मानते। इसके लिए संत, शास्त्र और यहां तक कि भगवान् भी हमारी सहायता करते हैं । भगवान् की कृपा अलौकिक है । बस निरन्तर उस कृपा का अनुभव करना है।
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