*दीक्षा का अधिकारी* इस कहानी को पूरा पढ़ें, जाने विद्वान को दीक्षा ग्रहण करने से पहले कैसे देनी पड़ी कड़ी परीक्षा..
काशी के एक प्रकाण्ड विद्वान् शंकराचार्य के पास आये, बोले – महाराज! हमको अपना चेला बना लीजिए। उन्होंने कहा – हाँ, ठीक है लेकिन ऐसा है कि तुम अभी अधिकारी नहीं हो। वह बड़ा विद्वान था। विद्वानों को क्रोध और अहंकार तो रहता ही है। उसने कहा – शास्त्रार्थ कर लीजिये। शंकराचार्य ने सोचा यह शास्त्रार्थ करेगा। इसको तो इतना अहंकार है जबकि शास्त्र समझने वाले को विनम्र होना चाहिए।
इतना अहंकार है और तू हमको गुरु बनाना चाहता है? और शास्त्रार्थ कर रहा है। महाराज गलती हो गई, अपराध हो गया, कृपया बतायें कि अधिकारी कैसे बनें ?
देखो ब्रज में जाओ, गोवर्धन की परिक्रमा करो, भिक्षा माँगकर खाओ, किसी से बात मत करना, कुछ न देखना, न सुनना, न सूंघना, न स्पर्श करना, केवल राधेश्याम इन दो शब्दों को रोम-रोम से बोलते रहना।
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अत:करण से उनके लिए आँसू बहाते हुए वहाँ एक साल तक रहो। वह गया एक साल तक परिक्रमा की, उसी प्रकार आँसू बहाते हुए। वापिस आया। जब देखा शंकराचार्य ने कि आ रहा है पंडित तो उन्होंने सोचा कि इसकी परीक्षा लेनी चाहिए। उन्होंने एक भंगिन को बुलाया और कहा, तुझे पाँच रुपया हम देंगे। देखो, यह पंडित जो आ रहा है न! तुम झाड़ू लगाती रहना और जब यह पंडित जरा तुम्हारे पास आये तो धूल उड़ा देना इसके ऊपर। ठीक है, उसने कहा, जरा बक ही तो लेगा। पाँच रुपया तो मिलेगा। सस्ते जमाने में पाँच रुपया हजार के बराबर होता था। जैसे ही पंडित पास आया, उसने इतनी जोर से धूल उड़ाई कि वह पंडित के ऊपर जा गिरी। अब पंडित आग-बबूला हो गया, अंधी है, देखती नहीं। उसको हँसी आ गयी। वह तो जानती ही थी कि नाराज होगा। अब पंडित गया शंकराचार्य के पास। महाराज! आपकी आज्ञा का पालन कर आया। उन्होंने कहा – लोगों को खाने दौड़ता है और कहता है, आज्ञा पालन कर आया। अभी कुछ गड़बड़ है फिर जाओ एक साल के लिए।
उसने तो कमर कस ही ली थी कि इनको गुरु बना कर ही छोड़ूंगा। फिर गया, एक साल तक उसी प्रकार से साधना की, फिर लौटकर आया। शंकराचार्य ने फिर भंगिन से कहा- अब यह धूल उड़ाने से गुस्सा नहीं करेगा, इसकी स्थिति कुछ ऊँची हो गयी है, तू झाड़ू लगाती रहना और जब पंडित तेरे पास आये तो इस बार झाड़ू छुआ देना, उसके शरीर में। उसमें पाखाना वगैरा लगा रहे । वह झाड़ू लगाती रही और पंडित जब आया, उसने पंडित के शरीर से झाड़ू छुआ दिया। पंडित न भौहें तानी और क्रोध आ गया लेकिन बोला कुछ नहीं। गड़बड़ी तो हो ही गयी। शंकराचार्य के पास गया, गुरु जी! अब तो ठीक है। नहीं, अभी ठीक नहीं है, अभी तो गुर्राते हो।
फिर गया और फिर एक साल तक साधना की। यह शिष्य बनाने के लिए शंकराचार्य कर रहे हैं और आज कलियुग में लाइन लग रही है। कोई भी जाओ, चेला बन जाओ। हजारों लोग चेले बनाये जा रहे हैं। लौटकर आया, तब शंकराचार्य ने भंगिन से कहा – देखो अब यह झाड़ू छुआने से गुस्सा नहीं करेगा, यह जो कूड़े-कचरे का टोकरा है उसके ऊपर छोड़ देना। भंगिन ने कहा- अब पिटे। दुनिया में कोई भी सुनेगा तो क्या कहेगा। झाड़ू के लिये तो कहा जा सकता है कि छू गई, लेकिन यह तो टोकरा छोड़ने के लिए कह रहे हैं, लेकिन कोई बात नहीं, पच्चीस रुपया तो मिल ही रहा है। भंगिन ने टोकरा छोड़ दिया और पंडित जी ने भंगिन के चरण पकड़ लिए और बड़े शान्त मन से कहा – माँ! तुम मेरी प्रथम गुरु हो। तुमने मुझे जगद्गुरु के चरणों तक पहुँचा दिया।
शंकराचार्य देख रहे हैं आश्रम की खिड़की में से। बाहर निकले और कहा- आ शिष्य आ, अब तू अधिकारी हुआ। जब तक अंत:करण शुद्धि न हो जायेगी, तब तक कोई महापुरुष दीक्षा कैसे दे। यह दिव्य प्रेम जो होता है, उसमें इतनी शक्ति होती है कि अगर कोई बिना अधिकारी बने आपको दे भी दे,
जबरदस्ती तो हमारा शरीर फटकर चूर-चूर हो जाये। हम सह नहीं सकते। हमारा अंत:करण इतना कमजोर है कि संसार का ही बड़ा दुःख और बड़ा सुख आप सह नहीं पाते। तो इतनी बड़ी शक्ति को हम कैसे सहन करेंगे। इसलिये अधिकारी बनने पर ही यह दिव्य प्रेम मिलता है।
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