bhagvad Sar…. भगवान् को हमारा मन चाहिए ….. भगवान् हमसे धन नहीं चाहते। भगवान् हमसे भोग आदि भी नहीं चाहते, न ही वे तप-व्रत आदि चाहते हैं… वे हमसे केवल हमारा मन चाहते हैं।
हम अपना ध्यान भगवान् में लगायें … भगवान् ये चाहते हैं। भगवान् को अपना मन दो …. भगवान् को अपनी बुद्धि दो …. भगवान् को अपना चित्त दो… और भगवान् को अपना अहंकार सौंप दो।
मैं भगवान् का हूँ…. बस केवल यही अहंकार शेष रहे, यह अहंकार ही हमारी मुक्ति के द्वार खोल देता है।
आसक्ति बंधन का कारण है… किन्तु वही आसक्ति अगर भगवान् से हो तो हमारे लिए यही आसक्ति मुक्ति के द्वार खोल देगी।
कुल मिलाकर “भागवत धर्म” उसे कहते हैं…. जिसमें सामान्य सी वासना को भी मनुष्य साधना बनाकर भगवान् तक पहुँच सकता है – यही “भागवत धर्म” है। “भागवत धर्म” में क्रिया नही अपितु भाव देखा जाता है – भावग्राही जनार्दन
इसलिए भागवत धर्म ही कलियुग में श्रेष्ठ धर्म है, इस धर्म का पालन करते हुए भगवान् की अहेतुकी भक्ति प्राप्त होती है।
यह भागवत धर्म सरल है, सहज है। श्रीमद्भागवत पुराण में सूतजी अंत में कहते हैं….. भगवान् के नाम का सदैव स्मरण करो… यही भागवत धर्म का सार है।
यानास्थाय नरो राजन्न प्रमाद्येत कर्हिचित् । धावन्निमील्य वा नेत्रे, न स्खलेन्न पतेदिह ।।
हे राजन् ! इन भागवत-धर्मों का आश्रय करके स्थित (जीवित) रहनेवाला मनुष्य, कभी किसी प्रमाद अर्थात् कष्ट से पीड़ित नहीं होता तथा नेत्र बंद करके दौड़ने पर भी अर्थात् विधि-विधान में कोई त्रुटि हो जाने पर भी, न तो वह भक्तिमार्ग से स्खलित ही होता है और न तो पतित ही, अर्थात् फल से वञ्चित भी नहीं होता है।