परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज के वचन
हमने सन्त- महात्माओं से सुना है कि परमात्मा हैं, परमात्मा मिलते हैं और परमात्मा हमें भी मिल सकते हैं — ऐसी श्रद्धा – विश्वास हो जाय तो उसे परमात्मा अवश्य मिलते हैं; ऐसी श्रद्धा से परमात्म – प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है।
एक मार्मिक बात है कि किसी मूल्य के बदले जो वस्तु मिलती है, वह वस्तु उस मूल्य से कम कीमत की होती है। यदि किसी साधन से अर्थात् अपने बल, बुद्धि, योग्यता के बल पर भगवान् मिलते हों तो अपने साधन से कमजोर भगवान् ही मिलेंगे ।
जिनकी स्फुरणा मात्र से अनन्त – अनन्त सृष्टि की रचनाएँ होती हैं, जो *’कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम् समर्थ’* हैं, वे भगवान् हमारी सीमित योग्यता के बल पर कैसे मिल जायेंगे ? ऐसे अद्वितीय, सर्वसमर्थ भगवान् अपनेपन से ही मिलते हैं ।
भगवान् में अपनापन प्रकट होता है भगवान् में अनन्य भाव रखने से । एक भगवान् ही अपने हैं, भगवान् के सिवाय त्रिलोकी में लेशमात्र चीज भी अपनी नहीं है— जो वस्तु अमूल्य, अनमोल होती है, वह बिना मूल्य के मिलती है। भगवान् का मूल्य कोई चुका सकता ही नहीं, अतः भगवान् बिना मोल के ही मिलते हैं।
यह जीव भगवान् का अंश होते हुए भी नाशवान् शरीर-संसार का सहारा लेता है, नाशवान् में आकृष्ट हो जाता है — यह बात भगवान् को सुहाती नहीं है। भगवान् की एक बड़ी कमजोरी है कि जो भगवान् के सिवाय किसी अन्य को अपना नहीं मानता है, भगवान् उसके वश में हो जाते हैं।
2 Responses
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