कामना ही संसार बन्धन का कारण है
अनेक अनेक जन्म चलें गए फिर भी हम शांत नहीं होते… हम संतुष्ट नहीं होते… हमारी कामना की भूख मिटती ही नहीं… चाहे कितना ही क्यूँ न पा लें, फिर भी ऐसा लगता हैं कि अभी भी अधूरा हैं…हमारी ज़रूरतें तो बहुत ही थोड़ी हैं लेकिन वासना की कोई तृप्ति नहीं हैं…
कामनाओं की कोई सीमा नहीं हैं…हमें हमेशा ही कुछ न कुछ और-और चाहिए अभी…इतने-इतने जन्म चले गए फिर भी हमारी इच्छाओं का अंत नहीं हुआ…हमें ऐसा लगता हैं कि अभी कुछ कमियाँ रह गई हैं …और इन्हीं कामनाओं के पीछे हम जीवन भर भागे चले जातें हैं।
इस अंधी दौड़ की न कोई सीमा हैं, न कोई अंत हैं… पर एक बात याद रखना, हमें सत्ता-संपत्ति-प्रतिष्ठा-धन-वैभव नहीं बाँधता है… अपितु इन सबकी जो कामना है-चाहना है, वो बाँधती है… हमारे मन को लुभाती है…और बस, अनंत-अनंत जीवन तक इस संसारचक्र में घुमाती रहती है…दौड़ाती रहती है।
भगवद गीता क्या बताती है ?
भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्रों में कामना (इच्छा) को संसारिक बंधन का मुख्य कारण माना गया है। उपनिषद, भगवद गीता और बुद्ध के उपदेशों में यह कहा गया है कि कामनाएँ व्यक्ति को भौतिक संसार से बाँधती हैं और उन्हें मुक्ति या मोक्ष से दूर रखती हैं।
कामना एक प्रकार की लालसा है, जो व्यक्ति को सांसारिक वस्तुओं, सुख-सुविधाओं और व्यक्तियों से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह लालसा हमें स्थायी सुख की खोज में अस्थायी सुखों की ओर आकर्षित करती है, जिससे व्यक्ति बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में फँस जाता है।
भगवद गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जब तक व्यक्ति अपनी कामनाओं से मुक्त नहीं होता, तब तक उसे आत्मज्ञान और शांति प्राप्त नहीं हो सकती। गीता के अनुसार, आत्म-नियंत्रण और कामनाओं का त्याग ही मोक्ष का मार्ग है। इसी प्रकार, भगवान बुद्ध ने भी तृष्णा (लालसा) को दुख का मुख्य कारण बताया है और इसे समाप्त करने का उपदेश दिया है।
इस प्रकार, कामनाएँ व्यक्ति को संसार के भोग-विलास और बंधनों में बाँधती हैं, जिससे उसे मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं होता। कामनाओं का त्याग और आत्म-नियंत्रण ही मोक्ष या परम शांति की ओर ले जाता है।
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